Yada Yada Hi Dharmasya Sloka Meaning in English
Yada yada hi dharmasya glanirbhavati bharata
Abhythanamadharmasya tadatmanam srijamyaham
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥
The above verse is one of the most well-known slokas from the Hindu epic, the Bhagavad Gita. It is often recited in Hindu religious ceremonies and is a widely recognized verse throughout India. The verse has great significance and is believed to hold deep meaning, which is worth exploring.
The Bhagavad Gita is a spiritual text that consists of 700 verses, and it is a part of the larger Hindu epic, the Mahabharata. The text is believed to be a dialogue between Lord Krishna, the supreme deity in Hinduism, and Arjuna, a prince who is about to go to war with his cousins.
The verse “Yada yada hi dharmasya glanirbhavati bharata, Abhythanamadharmasya tadatmanam srijamyaham” is spoken by Lord Krishna to Arjuna during the battle of Kurukshetra. The verse translates to, “Whenever there is a decline in righteousness, O Arjuna, and an increase in unrighteousness, then I manifest myself.”
The verse speaks about the cyclical nature of dharma or righteousness in the world. It suggests that when there is a decline in righteousness and an increase in unrighteousness, then the divine power or God manifests itself in the world to restore balance and righteousness.
The verse also suggests that when people deviate from the path of righteousness, then they invite divine intervention. The verse indicates that God takes the form of an avatara or incarnation and appears on earth to restore righteousness. Lord Krishna, who is believed to be an incarnation of Lord Vishnu, says that whenever there is a decline in righteousness, he manifests himself on earth to restore balance.
The verse has a deeper spiritual meaning. It suggests that whenever we are faced with moral and ethical dilemmas, we should seek guidance from the divine power within ourselves. The verse suggests that each of us has a spark of divinity within us, which we can tap into to make the right choices in life.
The verse also reminds us of our duty to uphold righteousness in the world. It suggests that we should strive to live a righteous life and promote righteousness in society. The verse suggests that when we live a righteous life, we create positive energy that can help counter the negative energy of unrighteousness in the world.
The verse has great significance in the Hindu tradition, and it is often recited during religious ceremonies. The verse is a reminder of the cyclical nature of dharma and the importance of upholding righteousness in the world. The verse also suggests that we should seek guidance from the divine power within us to make the right choices in life.
In conclusion, the verse “Yada yada hi dharmasya glanirbhavati bharata, Abhythanamadharmasya tadatmanam srijamyaham” is a powerful verse from the Bhagavad Gita that speaks about the cyclical nature of righteousness in the world. The verse suggests that whenever there is a decline in righteousness, the divine power manifests itself to restore balance and righteousness. The verse also reminds us of our duty to uphold righteousness in the world and seek guidance from the divine power within us to make the right choices in life.
Yada Yada Hi Dharmasya Sloka Meaning in Hindi
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥
यह श्लोक हिंदू धर्मग्रंथ भगवद गीता का एक महत्वपूर्ण श्लोक है। इसे हिंदू धर्म के अध्ययन के दौरान अक्सर उच्चारित किया जाता है। यह श्लोक महत्वपूर्ण है और इसमें दी गई गहराई को समझना बेहद जरूरी है।
भगवद गीता हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रंथ है, जो महाभारत का हिस्सा है। इस ग्रंथ के माध्यम से भगवान कृष्ण और अर्जुन के बीच चर्चा होती है।
श्लोक “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्” कुरुक्षेत्र के युद्ध के दौरान भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को बताया जाता है। इस श्लोक का अर्थ है, “जब भी धर्म का अधःपतन होता है और अधर्म का वृद्धि होती है, तब मैं स्वयं प्रकट होता हूं।”
इस श्लोक से धर्म की चक्रवृद्धि का विवरण दिया गया है। जब धर्म का अधःपतन होता है और अधर्म का वृद्धि होती है, तब भगवान कृष्ण अपने रूप द्वारा वहाँ स्थित होते हैं और संसार के सम्पूर्ण लोगों को संरक्षण देते हैं। यह श्लोक हमें बताता है कि धर्म जीत हमेशा अधर्म पर होती है और भगवान अपनी कृपा से हमेशा धर्म के पक्ष में खड़े होते हैं।
इस श्लोक के महत्व को समझने के लिए हमें इसे संदर्भ में लेना चाहिए। यह श्लोक भगवान कृष्ण के मुख से उनके भक्त अर्जुन को कहा गया था। इस श्लोक से हमें यह सीख मिलती है कि हमें हमेशा धर्म का पालन करना चाहिए। धर्म का अर्थ है अच्छाई, सत्य और न्याय का पालन करना। जब हम अधर्म का पालन करते हैं तो हम सभी को नुकसान पहुँचाते हैं।
भगवान कृष्ण इस श्लोक के माध्यम से हमें यह भी सिखाते हैं कि धर्म का पालन करने के लिए हमें हमेशा सक्रिय रहना चाहिए। हमें सभी परिस्थितियों में धर्म का पालन होता रहना चाहिए, चाहे वह कितनी भी मुश्किल हो। धर्म का पालन करने के लिए हमें अपने आसपास के लोगों को भी सक्रिय करना चाहिए ताकि समाज में अच्छाई और सदभाव बढ़े।
इस श्लोक में बताया गया है कि भगवान कृष्ण हमेशा धर्म के पक्ष में खड़े होते हैं। इससे हमें यह सीख मिलती है कि जब हम धर्म का पालन करते हैं तो हमें भगवान का संरक्षण मिलता है। भगवान हमेशा उन लोगों के साथ होते हैं जो सत्य और धर्म के पक्ष में होते हैं।
यह श्लोक हमें धर्म के महत्व को समझाता है। धर्म का पालन करना हमारी जिंदगी का मूलमंत्र होना चाहिए। हमें समझना चाहिए कि धर्म का पालन करने से हमारी जिंदगी में शांति और सुख का माहौल बनता है। धर्म का पालन करने से हम खुशहाल जिंदगी जी सकते हैं जो हमें आनंद, संतोष और शांति का महसूस होता है।
इस श्लोक में हमें यह भी समझना चाहिए कि धर्म का पालन करना हमेशा जीवन का मूल्य बढ़ाता है। धर्म का पालन करने से हमारी जिंदग में आत्मसम्मान और आत्मविश्वास बढ़ता है। धर्म का पालन करने से हम अच्छे लोग बनते हैं जो समाज में सदभाव और अच्छाई फैलाते हैं। धर्म का पालन करने से हमें सफलता मिलती है जो हमारी जिंदगी में नए मौके प्रदान करती है।
यह श्लोक हमें धर्म के महत्व को समझाता है लेकिन यह भी समझाता है कि धर्म का पालन करने के लिए हमें समाज में अपनी भूमिका को अच्छी तरह से निभाना होगा। हमें समाज में अपनी जिम्मेदारियों का पूरा निर्वहन करना चाहिए और लोगों की मदद करनी चाहिए।
इस श्लोक में यह भी समझाया गया है कि हमें अपने धर्म को जीवन में जोड़ना चाहिए। हमें धर्म के मूल उपदेशों को अपनी जिंदगी में उतारना चाहिए। हमें अपनी जिंदगी में सदाचार का पालन करना चाहिए जो हमें सफलता और सुख का मार्ग दिखाता है।
इस श्लोक का अनुवाद है, “जहाँ जहाँ धर्म का पालन होता है, वहाँ-वहाँ मैं अवतरित होता हूँ। और सभी जगह जहाँ अधर्म का बढ़ता
हुआ है, मैं अवतार लेकर आता हूँ।” इसका मतलब है कि जहाँ धर्म का पालन होता है, वहाँ ईश्वर स्वयं प्रकट होते हैं। ईश्वर को धर्म का पालन सबसे ज्यादा पसंद होता है। वह उन लोगों की सहायता करते हैं जो धर्म का पालन करते हैं।
यह श्लोक भगवद गीता के चौथे अध्याय में है। यह श्लोक महाभारत के युद्ध से पहले अर्जुन और कृष्ण के बीच हुआ एक अहम संवाद का भाग है। अर्जुन अपने भाई, स्वयं के और अपने साथियों को मारने के लिए तैयार नहीं था। उसने कृष्ण से पूछा कि क्या युद्ध करने से धर्म का पालन होगा।
इस पर कृष्ण ने उत्तर देते हुए इस श्लोक का उल्लेख किया था। उन्होंने अर्जुन को धर्म का पालन करने की महत्ता बताई और कहा कि जहाँ-जहाँ धर्म का पालन होगा, वहाँ-वहाँ ईश्वर स्वयं प्रकट होंगे।